बेलगाम बोल
भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने एक बार फिर नाथूराम गोडसे को लेकर जो बयान दिया, वह उनके अतीत के विचार और व्यवहार को देखते हुए हैरान नहीं करता, लेकिन इस बात पर हैरानी जरूर है कि उन्होंने इतना भी खयाल रखना मुनासिब नहीं समझा कि वे ऐसा लोकसभा में बोल रही हैं। गौरतलब है कि बुधवार को लोकसभा में एसपीजी संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान डीएमके सांसद ए. राजा ने जब एक संदर्भ में महात्मा गांधी और उनकी हत्यारे नाथूराम गोडसे का नाम लिया, तो बीच में ही प्रज्ञा ठाकुर ने गोडसे को देशभक्त बता दिया। स्वाभाविक ही समूचे सदन में हंगामा शुरू हो गया और विवाद के तूल पकड़ने के साथ ही प्रज्ञा ठाकुर के बयान को लोकसभा की कार्यवाही से हटा दिया गया। लेकिन सवाल है कि आखिर प्रज्ञा ठाकुर को यह समझना जरूरी क्यों नहीं लगता कि इतिहास के एक ऐसे अध्याय की वे अपनी ओर से मनमानी व्याख्या करना चाहती हैं, जो एक तथ्य के रूप में दर्ज है कि महात्मा गांधी के हत्यारे के रूप में कुख्यात नाथूराम गोडसे को एक खलनायक के तौर पर ही याद किया जा सकता है, देशभक्त के रूप में नहीं।
इस हकीकत को खुद भाजपा भी सहजता से स्वीकार करती है। इसलिए प्रज्ञा ठाकुर के बयान के बाद भाजपा ने उनके खिलाफ कार्रवाई की और उन्हें न केवल रक्षा मामलों की सलाहकार समिति से हटा दिया गया, बल्कि संसद के मौजूदा सत्र में उन्हें संसदीय दल की बैठक में आने का मौका भी नहीं मिलेगा। यानी भाजपा ने एक तरह से प्रज्ञा ठाकुर के साथ-साथ पार्टी से जुड़े सभी सदस्यों को आगाह किया है कि अगर कोई इस तरह के विचार जाहिर करता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। निश्चित रूप से भाजपा का यह रुख स्वागतयोग्य है, लेकिन यह भी सच है कि पार्टी ने प्रज्ञा ठाकुर के मामले में यह कदम काफी देर से उठाया, क्योंकि उन्होंने ऐसा विचार कोई पहली बार जाहिर नहीं किया है। सन 2008 में मालेगांव बम विस्फोट मामले में अभियुक्त रहीं प्रज्ञा ठाकुर फिलहाल स्वास्थ्य कारणों से जमानत पर जेल से बाहर हैं। करीब पांच महीने पहले भी उन्होंने गोडसे को देशभक्त बताया था और उस समय भी काफी आलोचना झेलने के बाद भाजपा ने उनके खिलाफ कार्रवाई की बात कही थी। लेकिन उस दिशा में कुछ नहीं हुआ। जबकि तब खुद प्रधानमंत्री ने भी प्रज्ञा ठाकुर को कभी दिल से माफ नहीं करने की बात कही थी।
विडंबना यह है कि प्रज्ञा ठाकुर को प्रधानमंत्री तक के विचारों के खिलाफ जाकर उन्हें और अपनी पार्टी के अन्य नेताओं को असहज स्थिति में डालने से हिचक नहीं होती। इस बार भी जब लोकसभा में उनके बयान पर हंगामा शुरू हो गया, तो खुद रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को यह साफ करना पड़ा कि गोडसे को देशभक्त बताना निंदनीय है और महात्मा गांधी हमेशा हमारे लिए एक आदर्श व्यक्ति रहेंगे। यों भी इस देश की आजादी से लेकर बाकी तमाम मामलों में महात्मा गांधी की क्या भूमिका रही है, यह शायद अलग से बताने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। खासतौर पर भारतीय राजनीति में जितनी भी पार्टियां संसदीय लोकतंत्र में आस्था रखती हैं, उन्हें महात्मा गांधी को एक अनिवार्य अध्याय के रूप में याद रखना चाहिए। अगर प्रज्ञा ठाकुर के मुंह से अक्सर उनके हत्यारे के लिए सहानुभूति निकल जाती है तो उन्हें अपने रुख पर विचार करने की जरूरत है।
सुंदरता का गणित
रजनीश जैन
सुंदरता की वास्तविक परिभाषा क्या है? अचानक यह सवाल प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि कुछ समय पहले तेईस वर्षीया मॉडल इसाबेला हदीद को दुनिया की सबसे सुंदर महिला घोषित किया गया है। यह जानना दिलचस्प है कि इसाबेला को गणित के फार्मूले की बदौलत यह सम्मान मिला है। अगर यह फार्मूला नहीं होता तो निश्चित रूप से इसाबेला का मनोनयन अब तक विवादों की भेंट चढ़ चुका होता। ग्रीक सभ्यता के एक प्राचीन शिल्पकार, चित्रकार, आर्किटेक्ट फीडिअस ने शिल्पकला को अविश्वसनीय ऊंचाई पर पहुंचाया था। उनके ओलम्पिया शहर में बनाए शिल्प को प्राचीन सात आश्चर्यों में शामिल किया गया है। फीडिअस ने जीवित मनुष्यों के शिल्प बनाने में प्राचीन ग्रीक गणित के सूत्रों का सहारा लिया था। फीडिअस के ही काम को आगे बढ़ाते हुए पंद्रहवी शताब्दी में इटली के लिओनार्दो दा विंची ने अपने शिल्पों और पेंटिंग्स के डायग्राम में इन्हीं सूत्रों के सहारे कई कालजयी चित्रों और डायग्राम बनाए जो आज भी आर्किटेक्ट की पढ़ाई करने वालों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। सैंकड़ों वर्षों से इस सूत्र की मदद से सुंदर भवनों और शिल्पों का निर्माण किया जाता रहा है।
खैर, समझना यह है कि सुंदरता का गणित से क्या वास्ता? जो सुंदर है, वह बगैर किसी किंतु-परंतु के सुंदर है! इसाबेला के उदाहरण में ब्रिटिश प्लास्टिक सर्जन डॉ डी सिल्वा ने लिओनार्दो दा विंची और फीडिअस के अपनाए मानकों के आधार पर यह घोषणा की। दरअसल, मानव शरीर की बनावट में हरेक अंग को बाकी शरीर के एक अनुपात और बाकी अंगों से उसकी समरूपता को देखा जाता है। यही तत्त्व सुंदरता का निर्माण करता है और देखने वाले किसी व्यक्ति के मन में आकर्षण का भाव पैदा करता है।
हिंदी और अंग्रेजी, दोनों ही साहित्य में सुंदरता, खासतौर पर स्त्री की सुंदरता पर अनगिनत काव्य, कहानियां और शोध ग्रंथ उपलब्ध हैं। कालिदास की शकुंतला, शेक्सपियर की क्लिओपेट्रा, जायसी की पद्मावत, ग्रीक पुराणों की हेलेन आॅफ ट्रॉय, हमारे मुगल इतिहास की नूरजहां, अर्जुमंद बानो मुमताज महल, जहांआरा बेगम आदि की जादुई सुंदरता और आकर्षक व्यक्तित्व पर आज भी लिखा जा रहा है। मौजूदा दौर में दिवंगत महारानी गायत्री देवी को साठ के दशक में दुनिया की दस सुंदर महिलाओं में शामिल किया गया था। लगभग इसी दौर में मादकता का पर्याय बनी अभिनेत्री मधुबाला के सौंदर्य ने हॉलीवुड फिल्म निमार्ताओं को उन्हें अपनी फिल्म में लेने के लिए मुंबई आने पर बाध्य कर दिया था।
लेकिन हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि बदलते समय के साथ सुंदरता मापने के मापदंडो में भी परिवर्तन हुआ है। 'मिस यूनिवर्स', 'मिस वर्ल्ड', 'मिस एशिया', 'मिस इंडिया' से होता हुआ सिलसिला स्थानीय स्तर तक आ पहुंचा है। इन ाौंदर्य स्पर्धाओं ने न केवल बाजार को प्रभावित करना शुरू कर दिया है, बल्कि सौंदर्य प्रसाधनों का एक अलग बाजार खड़ा कर दिया है। इन्हीं स्पर्धाओं से निकली ऐश्वर्या रॉय, सुष्मिता सेन, डायना हेडन आज अपने सौंदर्य की वजह से कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ब्रांड एंबेसडर बन कर अभिनय से अधिक धन कमा रही हैं। यह इसलिए संभव हो पा रहा है कि हमारे समाज में सौंदर्य के पैमाने जिस परिभाषा में बंधे रहे हैं, लोगों का नजरिया भी उसी के मुताबिक संचालित होता रहा है। यहां यह भी गौरतलब है कि सिनेमा ने सुंदरता को देखने के नजरिये को बुरी तरह प्रभावित किया है। नायिका को स्क्रीन पर प्रस्तुत करने के दौरान जितनी सावधानी बरती जाती है और उसे जिस कृत्रिमता से संवारा जाता है, उसे कभी न कभी दर्शक ताड़ ही जाता है। फिर भी बीते दो-तीन दशकों में नैसर्गिक सौंदर्य से उपकृत रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, मनीषा कोइराला जैसी नायिकाएं अभिनय के अलावा अपने रूप लावण्य से भी दर्शकों को आकर्षित करती रही हैं।
कहने का आशय यह कि 'सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है', इस वाक्यांश का पहला प्रयोग ईसा से तीन शताब्दी पूर्व ग्रीक में ही हुआ था। लेकिन इसके मंतव्य के बारे में लगभग सभी साहित्यकारों, लेखकों ने अपनी व्याख्या हर काल में लिखी है। इस कथन के अनुसार मनुष्य का सौंदर्य सिर्फ स्त्री सौंदर्य पर ही सीमित रह जाना सौंदर्य भाव का अपमान है। सुंदरता कई आकार और रूपों में हमारे सामने आती है। शिल्प, कविता, संगीत, गीत, भाषा, व्यवहार, रिश्ता, प्रेम, स्वस्थ तर्क, अनुपम विचार, समाधान, जीवन, सूर्यास्त, सूर्योदय, नीले आसमान पर बंजारे बादलों का मनचाहे आकार लेना, बड़े कैनवास की तरह फैले अनंत ब्रह्मांड में सूर्य की परिक्रमा करती नन्ही धरती क्या कम सुंदर है? जन्म के समय किसी बच्चे का रुदन और उसे देख उसके माता-पिता के चेहरे पर आई मुस्कान में अप्रितम सौंदर्य छिपा है! प्रियतम के इंतजार की घड़ियां, बचपन में किसी मित्र की दी हुई भेंट, प्रशंसा के दो शब्द, पुरानी किताब से मिला सूखा गुलाब आदि भी अकल्पनीय सौंदर्य से भरे लम्हे हैं! क्षणभंगुर जीवन की सत्यता के बावजूद जीवन के प्रति अनुराग अलौकिक सौंदर्य से भरा है।
भूजल का गहराता संकट
सुविज्ञा जैन
देश में जल संकट पर चार दशक से चिंता जताई जा रही है। इस बीच आबादी लगभग दोगुनी से भी ज्यादा हो गई। यानी तबसे पानी की न्यूनतम जरूरत भी दोगुनी हो गई है। लेकिन इस दौरान वर्षा जल के भंडारण का इंतजाम बहुत कम बढ़ा है। फिर क्या चमत्कार है कि आज पानी की कमी से उतना हाहाकार नहीं है। सरकार तो जब तब कहती रहती है कि पानी का पर्याप्त भंडारण है। आखिर यह इंतजाम हो कहां से रहा है?
इतना ही नहीं, नब्बे के दशक से देश में उद्योगीकरण और शहरीकरण भी ताबड़तोड़ हुआ। कृषि उत्पादन भी बढ़ा। इस तरह देखें तो पानी की खपत पहले की तुलना में कई गुनी रफ्तार से बढ़ी। लेकिन समस्या यह रही कि जल प्रबंधन उस रफ्तार से नहीं बढ़ा। यहीं पर यह रहस्य और बढ़ जाता है कि आज सवा अरब से ज्यादा की आबादी के खाने के वास्ते अनाज पैदा करने के लिए, इतनी बड़ी आबादी के पीने, नहाने-धोने और दूसरी वस्तुओं के उत्पादन के लिए आखिर पानी आ कहां से रहा है?
दरअसल, हम साल-दर-साल धरती से ज्यादा से ज्यादा पानी उलीचने लगे हैं। उससे कहीं ज्यादा, जितना बारिश के दिनों में धरती सोखती है। जाहिर है, भूजल का स्तर नीचे जा रहा है। यह अलग बात है कि जल प्रबंधन की नाकामी छिपाने के लिए हम बेजा तरीके से भूजल के अंधाधुंध इस्तेमाल पर चिंता जताने से कतराते हैं, लेकिन हमें चेत जाना चाहिए कि भूजल उपलब्धता की भी एक सीमा है। उस सीमा से आगे भयावह हादसा है।
दशकों से यों ही नहीं कहा जाता रहा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। आज के हालात बता रहे हैं कि देशों और राज्यों के बीच जल विवादों को बढ़ने से कोई रोक नहीं पाएगा। मानव की बुनियादी जरूरतें भले ही न बढ़ रही हों, लेकिन उसकी चाहत और इच्छाएं बेकाबू हैं। इनके लिए हर हाल में पानी की जरूरत पड़ती है। कोई भी ऐसा उद्यम नहीं है, जिसमें पानी न लगता हो। लेकिन यह हकीकत भी है कि किसी भी देश के पास उसके भूभाग के मुताबिक ही सीमित जल संसाधन होते हैं। हर देश के पास अब भी बारिश का उतना ही पानी उपलब्ध है, जितना सदियों से प्रकृति से मिल रहा है। पूरी दुनिया की तुलना में भारत के लिए यह संकट और बड़ा है, क्योंकि भारत की जनसंख्या वृद्धि दर दुनिया के अधिकतर देशों से ज्यादा है।
भारत को प्रकृति से जितना पानी मिलता है, दशकों से उतना ही मिल रहा है। लेकिन प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता भारत में घटती चली गई है। वर्षा के रूप में प्रकृति से मिलने वाले चार हजार अरब घनमीटर में से हम सिर्फ एक हजार आठ सौ अरब घनमीटर को ही उपलब्ध जल मानते हैं। लेकिन लचर जल प्रबंधन की वजह से देश में वर्षा से मिला सतही जल का भंडारण उतना नहीं हो पाता। नतीजतन, पानी की बढ़ी जरूरत भूजल का दोहन करके होती है। बेशक सतही जल के प्रबंधन पर ज्यादा निवेश करके इस काम को साधा जा सकता था, लेकिन यह करने के बजाय अप्रत्यक्ष रूप से भूजल पर निर्भरता बढ़ाई जाती रही।
भूजल को सिर्फ आरक्षित जल मानना समझदारी नहीं है। भूजल पर्यावरण के लिहाज से भी वह जरूरी है। भूजल का जिस रफ्तार से दोहन हो रहा है, उसकी भरपाई मुश्किल है। क्योंकि जमीन की पानी सोखने की एक सीमा है। आज देश में कुओं, बोरवेल, ट्यूबवेल आदि को गहरा करते-करते यह स्थिति आ गई है कि कई जगह भूजल समाप्त होने को है। खुद सरकार का आकलन है कि अगले साल तक देश के इक्कीस शहरों में भूजल खत्म होने का अंदेशा है। बेशक भूजल को लेकर सरकारी विभाग भी सोच-विचार में लगे हैं। गाहे-बगाहे इस पर चिंता भी जताई जाती है, खासकर केंद्रीय भूजल बोर्ड बीच-बीच में अपनी रिपोर्ट भी देता रहता है। सिफारिशें भी होती हैं। लेकिन भूजल बचाए रखने के लिए जमीनी स्तर पर कोई प्रयास नजर नहीं आते। सोचा जाना चाहिए कि ऐसा क्यों है?
दरअसल, मानव जीवन के लिए न्यूनतम पानी की उपलब्धता अपरिहार्य है। इसीलिए तमाम कानूनों के होते भी गैरकानूनी भूजल दोहन के खिलाफ माहौल नहीं बन पाता। कौन बनाए? सरकार जब पर्याप्त सतही जल प्रबंधन करने में लाचार है, तो भूजल का बेजा इस्तेमाल करने से वह नागरिकों को कैसे रोक सकती है? लब्बोलुआब यह है कि इस समय भूजल के अति दोहन का सबसे बड़ा कारण है भारत में सतही जल संचयन क्षमता का कम होना। भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल संचयन क्षमता सिर्फ दो सौ घनमीटर है। जबकि मानकों के हिसाब से दो हजार घनमीटर प्रति व्यक्ति का इंतजाम होना चाहिए। वैसे जल भंडारण के मोर्चे पर खर्च के मामले में मुश्किल में पड़ी सरकारें विशेषज्ञों से यह कहलवाने में लगी दिखती हैं कि सिर्फ एक हजार घनमीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति पानी से काम चल सकता है। लेकिन संकट की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सतही जल का प्रबंधन यानी देश की जल भंडारण क्षमता सिर्फ दो सौ सत्तावन अरब घनमीटर ही है। ऊपर से हमारे बांध और जलाशय पूरी क्षमता में कभी नहीं भरते। कोई तर्क दे सकता है कि दो हजार घनमीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष का मानदंड सिर्फ सैद्धांतिक बात है, यह व्यावहारिक नहीं है।
पर तथ्य यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो पैमाना बना था, वह पूरा हिसाब लगा कर ही बना था। इस बात को और ज्यादा देखने के लिए हमें दूसरे देशों की जल भंडारण स्थिति पर भी नजर डालनी चाहिए। प्राकृतिक रूप से जल-विपन्न कहे जाने के बावजूद अमेरिका के पास प्रति व्यक्ति दो हजार एक सौ तिरानबे घनमीटर पानी जमा करने की क्षमता है। आॅस्ट्रेलिया की यह क्षमता तीन हजार दो सौ तेईस घनमीटर है। ब्राजील प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष दो हजार छह सौ बत्तीस घनमीटर जल रोक कर रख लेता है। दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला चीन तक हमसे दोगुना यानी प्रति व्यक्ति चार सौ सोलह घनमीटर पानी संचित कर लेता है। कई देश तो ऐसे हैं, जो वर्षाजल के एक बार इस्तेमाल के बाद उसे बार-बार इस्तेमाल करने लायक बना लेते हैं। वे अपनी जल उपलब्धता से ज्यादा भंडारण दिखा सकते हैं।
भूजल की समस्या का रूप और उसका समाधान ढूंढ़ने के लिए जल सांख्यिकी को समझने के अलावा कोई चारा नहीं। भूजल के आंकड़ों की नई समीक्षा किए जाने की सख्त जरूरत है। गौरतलब है कि हमारी जल भंडारण क्षमता सिर्फ दो सौ सत्तावन अरब घनमीटर ही है, यानी चार सौ तैंतीस अरब घनमीटर पानी बारिश के दिनों में बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस जा रहा है। हमारे किसानों को खेती के लिए भूजल का इस्तेमाल बढ़ाना पड़ रहा है। नए कंपोजिट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स के मुताबिक इस समय देश में बासठ फीसद सिंचाई भूजल से ही की जा रही है। गांव में जरूरत का पचासी फीसद पानी जमीन से ही निकाला जा रहा है।
एक और आंकड़ा महत्वपूर्ण है। विश्व में उपलब्ध कुल जल में भारत के हिस्से चार फीसद जल है। लेकिन पूरी दुनिया में जमीन से जितना पानी उलीचा जाता है, उसका पच्चीस फीसद सिर्फ भारत में उलीचा जा रहा है। फिलहाल इस बार जरूरत से ज्यादा बारिश के बावजूद हमें सचेत रहना चाहिए, क्योंकि वह पानी तो बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस जा चुका। हम भूजल पर ज्यादा निर्भर हैं, जो गर्मियों में इस बार और नीचे मिलेगा।
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान
सुधीश पचौरी
एक रिपोर्टर बीएचयू से बोला : आज मालवीय जी क्या सोच रहे होंगे, जब वे संस्कृत विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किए गए डॉ. फीरोज खान के संस्कृत पढ़ाने के खिलाफ इस विरोध प्रदर्शन को देख रहे होंगे? एक विरोधी छात्र कहने लगा कि वे मुसलमान हैं। मुसलमान हिंदुओं के कर्मकांड नहीं पढ़ा सकता। ऐसे अध्यापक को स्वयं कर्मकांडी होना होता है। जनेऊ धारण करना, गोमूत्र पीना होता है, जबकि एक मुसलमान शरीअत से चलता है। इनको किसी अन्य कोर्स में भेज दो। विरोध के साथ वे 'बुद्धि शुद्धि यज्ञ' भी किए जा रहे थे।
हिंदुत्व जब सिर चढ़ जाता है, तो वह इसी तरह बावला होकर अपनी दादागीरी करता है। कितनी भयानक बात है कि कुछ लोग 'संस्कृत' को 'हिंदुत्व' का पर्याय बनाए दे रहे हैं! विश्वविद्यालय प्रशासन ने साफ किया कि फीरोज खान दस अन्यों से बेहतर थे, नियुक्ति समिति ने उनको सर्वसम्मति से नियुक्त किया। लेकिन सरजी! यह विरोध कानूनी न होकर घोर सांप्रदायिक और फासीवादी है, जबकि फीरोज खान की नियुक्ति शिक्षा के क्षेत्र में 'बहुलतावाद' की विजय है! ये संकीर्णमना छात्र नहीं जानते कि ज्ञान के जाति-धर्म नहीं होते : 'जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान!
सप्ताह की एक और विवादास्पद खबर संसदीय रक्षा समिति में साध्वी प्रज्ञा को संसदीय रक्षा समिति का सदस्य बनाने ने बनाई। कांग्रेस समेत विपक्ष ने आपत्ति की कि जिन पर इतने आपराधिक मामले चल रहे हैं और जो गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को अपना हीरो मानती हैं और जिनके ऐसे बयान पर पीएम ने कहा था कि इस बात के लिए प्रज्ञा को वे कभी माफ नहीं करेंगे। उन्हीं को रक्षा समित में जगह दी तो क्यों?
ऐसी एक बहस में एक विहिप प्रवक्ता ने एक राजनीतिक विश्लेषक को बोलने ही नहीं दिया और एक तेज-तर्रार कही जाने वाली एंकर भी उस परिषद वाले एकदम 'शट अप' न कर सकी।
अपने यहां कई चैनलों की बहसें, एंकरों की जानी-अनजानी मेहरबानियों से, हिंदुत्व की ओर इसी तरह लुढ़कती रहती हैं। जिस दिन जेएनयू के छात्रों ने फीस बढ़ाने के खिलाफ संसद पर विरोध प्रदर्शन करने की कोशिश की, उस दिन लगभग हर रिपोर्टर और एंकर जेएनयू के छात्रों को 'आजादी' और 'टुकड़े गैंग' के पुराने मिथकों से ही परिभाषित करता रहा, जबकि छात्रों में से किसी ने भी इस बार 'आजादी आजादी' के नारे नहीं लगाए। पूरे दिन चैनल छात्रों और पुलिस प्रशासन के बीच की रस्साकशी को लाइव दिखाते रहे। धक्का-मुक्की और पकड़-धकड़ पूरे दिन चलती रही।
पुलिस की रोक के बावजूद बैरीकेड तोड़ कर छात्र जब सफदरजंग की सड़क पर आ गए तो भी पुलिस चुप रही। जब अंधेरा छा गया तो लाठी चार्ज किया। कई छात्रों को चोंटे आर्इं। एक दृष्टिहीन छात्र ने दो चैनलों में निर्ममता से पीटे जाने की आपबीती बताते हुए कहा कि लाठी चार्ज से पहले सड़क की बिजली काट दी गई थी।… समूचे कवरेज में किसी रिपोर्टर या एंकर ने यह न कहा कि छात्र प्रदर्शन ही तो करने जा रहे थे, तब उनको पुलिस ने कैंपस में ही क्यों रोकने की कोशिश की? वे जंतर मंतर जाते, डफली बजाते, अपना गुस्सा निकालते और चले आते। अगर न आते, तो आप गिरफ्तार करते। लेकिन यह क्या कि कोई प्रदर्शन ही नहीं कर सकता! मगर वाह रे हमारे 'कठिन सवाल करने' वाले एंकर कि वे इस तरह के नरम सवाल तक जेएनयू या सरकार से न पूछे!
उधर, जेएनयू के कुछ छात्र भी कम न थे। उनमें से कई एक चैनल की महिला रिपोर्टर को देर तक 'हेकिल' करते रहे। एक ने तो उसके कैमरे के आगे धमकी दे डाली कि हम लाठी बंदूक उठाएंगे और मीडिया को चुन-चुन के मारेंगे।… यह कैसा जेएनयू कल्चर हुआ भाई?
हमारे कुछ एंकर इतनी तीक्ष्णबुद्धि वाले हैं कि कुछ बड़े नेताओं के हर इशारे को पकड़ लेते हैं। इधर एक बड़े नेता कुछ बोले, तो एक ने लाइन लगाई कि सर जी ने एक 'बड़ा संकेत' दिया है। फिर राम माधव कश्मीर को लेकर बोल दिए कि अब्दुल्ला मुफ्ती को फिर आना चाहिए।…
राष्ट्रवाद की नित्य की खुराक से छके-पके कई एंकरों को शायद यह लाइन पसंद न आई और बहस कराने लगे। कई संघ प्रवक्ताओं ने राम माधव की लाइन की जम कर ठुकाई की! लेकिन किसी एंकर ने भाजपा से यह सवाल न पूछा कि जब विपक्ष कह रहा था कि उनसे बात करो तो आप उनको देशद्रोही कह रहे थे और अब अपने बड़े भाई वही कह रहे हैं, तो उनको 'देशद्रोही' क्यों नहीं कह रहे?
राम जी की लीला राम जी ही जानें : पहले एनआरसी बनवाई और फिर बगलें बताई कि देखा अपना कमाल! जो कहते हैं, कर दिखाते हैं। लेकिन जब उससे मनचीती होती न दिखी, तो कहने लगे हम उसे नहीं मानते और केंद्र जब अखिल भारतीय एनआरसी बनाए तो हमारी भी एनआरसी बनवा दे!
और, एक से एक 'कठिन सवाल' पूछने के लिए अपने ही चैनलों में मियां मिठ्ठू बनने वाले प्रश्न-बहादुर एंकर, असम मंत्री की पलटी पर एक भी कठिन सवाल नहीं कर सके कि सर जी पहले एनआरसी बनवाई क्यों और अब रिजेक्ट क्यों की? महाराष्ट्र में एनसीपी-शिवसेना-कांग्रेस की सरकार के बनने के आसार बढ़ने लगे तो कई चैनलों के पेट में दर्द होने लगा। कई एंकर बार-बार यही पूछते रहे कि ऐसी अवसरवादी सरकार कब तक चल पाएगी? पहले चैनल दिल्ली में हवा की राजनीति बजाते रहे फिर पानी की राजनीति को बजाने लगे। जब तक दिल्ली के चुनाव नहीं हो जाते तब तक चैनल दिल्ली की हर चीज को खराब बताते रहेंगे, क्योंकि उनके लिए भी दिल्ली का मतलब 'केजरीवाल' है!