पूर्वाग्रहों के रंग


अंबालिका


दक्षिण भारतीय फिल्मों की एक उभरती नायिका ने चेहरे को गोरा बनाने वाली क्रीम का विज्ञापन से मना कर दिया। हालांकि फिल्मी दुनिया से ऐसे कुछ उदाहरण पहले भी आए हैं, लेकिन ये आम नहीं रहे हैं। लोगों के मन में गहरे पैठे काले-गोरे का भेद काफी पुराना है। यह दुनिया भर में रहा है। अभी भी कई देश ऐसे हैं जहां रंगभेद सामाजिक धब्बा माना जाता है। फर्क यह है कि भारत में रंग और रूप का सीधा दर्पण स्त्री को माना जाता है। सामाजिक परिभाषा के मुताबिक सुंदर होना जैसे उनके लिए शर्त हो और अगर ऐसा नहीं है तो समाज उन्हें हीन भाव से भरा जीवन जीने पर मजबूर कर देता है। इक्कीसवीं सदी में जी रहा आज का समाज भी इन मिथकों से बाहर नहीं निकल पाया है कि स्त्री सौंदर्य की ‘देवी’ होती है। सौंदर्य भी ऐसा कि दूध-सी उजली काया हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो सौंदर्य के मापदंड पर वह खरी नहीं उतर सकती। शुरू से ही भारतीय समाज के इस पक्ष को मजबूती से थोपा गया है। ग्रंथों में भी स्त्री के रूप चर्चा ऐसी ही मिलती है।


प्राचीन काल में सीमित साधन थे। तकनीकी विकास और वैश्वीकरण नहीं थे। जैसे-जैसे परिवर्तन होता गया, पद्धतियां और सिद्धांत बदलते रहे। जीवन के कई रास्ते खुलने लगे। रीतियां, समाज, जलवायु कई चीजें बदली, लेकिन उज्ज्वल रंग से बंधी स्त्री खुद को इससे न निकाल पाई और न समाज की दृष्टि ने उसे निकलने दिया। अब भी गोरी लड़की पैदा होती है तो उसके ‘भविष्य’ यानी शादी में कोई बाधा की आशंका नहीं होती है और वही अगर अपने साथ श्याम वर्ण ले आई हो तो परिवार जैसे रो उठता है। हालत यह है कि गोरी लड़की अनपढ़ हो और गुणी न भी हो, तो उसके ब्याह के प्रति माता-पिता निश्चिंत रहते हैं। दूसरी तरफ, चाहे कितनी भी योग्य, सक्षम और गुणवान लड़की हो और उसका रंग श्याम वर्ण हो तो उसे लेकर माता-पिता को चिंता सताती है और लोग एक अजीब नजरों से उसे देखते हैं। इन सबके नतीजे में लड़की के अंदर स्थायी हीनभावना बैठ जाती है।


आज मानव जाति न केवल तकनीकी उन्नति कर चुकी है, बल्कि सामाजिक और मानसिक शिकंजों को भी तोड़ने का दावा करती है। कहने को समाज ने खुलेपन और परिवर्तन को स्वीकार लिया है। स्त्री-पुरुष के कार्य विभाजन का भेद मिट गया है। विभिन्न कार्य के लिए हर कोई घर से बाहर निकल रहा है। हर कोई अपने जीवन को, अपने सपनों को लेकर संजीदा होता जा रहा है। यानी आज विश्व मंडल पर हम एक होने की होड़ में हैं और तमाम रूढ़िवाद को दरकिनार कर आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन क्या वास्तव में समाज उस सोच से बाहर आ चुका है जो स्त्री को चमड़ी के रंग पर तौलती है?


सच यह है कि हम अब भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उसी रंगभेद की नीति को जी रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो बाजार में गोरा बनाने वाले उत्पादों की भरमार न होती। इन उत्पादों को बाजार में लाने में विज्ञापन का पुरजोर हाथ है। विज्ञापन की दुनिया ने सुंदरता के पैमाने को इतना विस्तार दे दिया है कि अब वह बेलगाम होती जा रही है। ऐसी एक क्रीम के विज्ञापन में दिखाया जाता रहा कि इस उत्पाद को लगा कर सांवली लड़की गोरी हो जाती है तो उसका आत्मविश्वास दुगना हो जाता है। यह सीधे तौर पर ऐसी मानसिकता को बढ़ावा देता है जो काले होने पर हीनता के भाव पैदा करते हैं। इस बाजार के खेल में उत्पादों के बिक्री की इतनी ज्यादा होड़ है कि विज्ञापन में सामाजिक हित का खयाल रखे बिना सामान को लोकप्रिय बनाने की मंशा होती है। एक तरह से यह सामाजिक हानि और मानसिकता का ह्रास है। ऐसी चीजों को बेचना और रंग निखारने की मानसिकता को बढ़ावा देना एक तरह से स्त्रियों को कुंठित करता है। सरकार को ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगा देना चाहिए।


दरअसल, इस मानसिकता को नियंत्रित करने वाली पितृसत्ता की मंशा यह है कि अगर स्त्री अपने रंग रूप में उलझी रहेगी तो वह जीवन, व्यक्तित्व और जीविका संबंधी अन्य विषयों पर ध्यान नहीं देगी। इसलिए एक लड़की को चाहिए कि वह सर्वप्रथम अपने मन को आत्मविश्वास से भरे और बाह्य आडंबर पर ध्यान न दे। रंग और आत्मविश्वास का कोई संबंध नहीं है। आत्मविश्वास एक मानसिक अवस्था है, जिसे रंग के साथ जोड़ना कतई सही नहीं। कितने ही ऐसे उदाहरण हैं जब स्त्री ने रंग को पार कर नए आयाम रचे हैं। अगर हम अपने रंग को लेकर हीनता का शिकार हो रहे हैं तो ऐसे उदाहरणों से हमें सीख लेना चाहिए। खुद को ऐसी जगह और मानसिकता से बाहर रखना चाहिए जो हमारे दबे रंग की आलोचना करते हों। हमें खुद को संवारने की जरूरत है, न कि रंग को। अपने जीवन को आगे ले जाने के बारे में सोचना चाहिए, अपने शौक को आकार देना चाहिए। दुनिया एक ऐसा मंच है, जहां अच्छे-बुरे का मेल है। हमें अपने विवेक से अच्छे को चुन कर आगे बढ़ते जाना है।