सुरेशचंद्र रोहरा
मन में अक्सर एक टीस उठती है कि आखिर मुझे अपने घर-परिवार के बुजुर्गों का जैसा स्नेह या संबल मिलना चाहिए, वह क्यों नहीं मिला। वह संबल कैसा हो सकता था? कहीं चूक मेरी है, मेरे परिवार की है या फिर आज समय ही बदल गया है? या फिर कहीं इसका कारण यह तो नहीं है कि हम उनके पास नहीं रहे या किसी वजह से उनसे खुद को दूर कर लिया, इसकी वजह से बहुत सारी संवेदनाओं से हम वंचित रह गए! मुझे याद है कि जब मैं छोटा था, एक दिन मैंने गौर किया कि माता-पिता के संरक्षण के अलावा मुझे अन्य परिजनों का संरक्षण भी हासिल है।
मुझे लगा कि इतने बड़े संसार में मैं अकेला नहीं हूं। भाई हैं, दोस्त हैं, परिचित और रिश्तेदार हैं। इस तरह मेरे साथ एक बड़ा कवच मेरे नाते-रिश्तेदार हैं। मुझे चिंता करने की कोई दरकार नहीं है। मैं कोई गलत काम नहीं करूंगा तो मुझे आंख बंद करके सभी का हमेशा सहयोग और सरंक्षण मिलेगा। यह सोच कर मुझे बहुत सुकून की अनुभूति हुई थी। लगा कि इस ‘फानी दुनिया’ में हमारे अस्तित्व के कुछ मायने हैं। तब संयुक्त परिवार था। जब हम बच्चे कुछ बड़े हुए तो आमतौर पर जैसा हर संयुक्त परिवार में होता है, परिवार विभाजित हुआ, चाचा अलग रहने लगे।
फिर भी दुख-सुख में की उनकी मौजूदगी सुकून देती थी। उम्र बढ़ने या बड़ा होते जाने के क्रम में मैंने महसूस किया कई मामलों में हमारा परिवार एक है, मगर कुछ महत्त्वपूर्ण चीजों में फांक भी है। कहने को हम एक हैं, मगर भीतर भीतर हमारी एकता में एक अंतर्निहित अनेकता भी निहित है, जिसे हम अनायास ही जीवन में अपने भीतर स्वीकार कर लेते हैं।
बाद में महीन रूप से देखने पर समाज और परिवार में मौजूद संवेदना के तार और दूरी की संवेदना में एक परोक्ष तालमेल-सा महसूस हुआ। ध्यान जाने पर यह पहलू काफी दिलचस्प लगा था। पिता लकवाग्रस्त हो चुके थे। दूर शहर में रहने वाले चाचा से वे अक्सर दुख-सुख की बातें करते थे। बातचीत में आत्मीयता और अधिकार की झलक मिलती थी। चाचा धनी-मानी थे, इसलिए पिताजी अधिकार पूर्वक उनसे मदद भी मांग लेते थे और चाचा सदा संबल भी दिया करते। कहने का आशय यह है कि हमेशा यह लगता रहता था और एक तरह का सुरक्षा भाव था कि हमारा कोई एक संरक्षक है, जिसके रहते हम निश्चित हैं… कोई भी दुख आएगा तो हमारे बड़े-बुजुर्ग छतरी लिए खड़े हैं!
एक फिल्म है ‘मैं हूं ना’। यह फिल्म कुछ इसी तरह के सरोकार को जीती है। उसमें भी एक बड़ा भाई है जो हर कष्ट में परिवार के सामने आकर खड़ा हो जाता है। यह सबंल, यह सुख बहुत भाग्यशाली लोगों को मिलता है।
मगर अब समय बदल गया है या फिर कोई और बात है। खासतौर पर शहरों-महानगरों में एकाकी होते और दायरे में सिकुड़ते समाज में ऐसा संरक्षण आज दुर्लभ है। आज परिचित और मित्र तो दूर, रिश्तेदार तक सभी, अपने जीवन में केंद्रित होते जा रहे हैं। वह प्रेम, विश्वास और संबल अब कहीं चला गया है। मैं अक्सर गौर करता हूं कि जो स्नेह और विश्वास हमारे बुजुर्गों में एक दूसरे के प्रति था, आज हमारी पीढ़ी में वह सिरे से नदारद है। एक का मुंह उत्तर दिशा की ओर है तो दूसरे का दक्षिण दिशा की ओर। जो सुखद संवाद परिजनों में होना चाहिए, दूर तक दिखाई नहीं देता। क्या इसका कारण आज का ‘समय काल’ है या फिर हमारी आत्मकेंद्रित होती जा रही सोच है।
यह स्थिति आसपास फैली हुई दिखती है। हर कोई ‘अपनी डफली, अपना राग’ वाली स्थिति में है। साथ रहने और सहयोग का जीवन जीने की सभी स्थितियों के बावजूद दो भाई एक दूसरे के साथ बहुत वक्त तक एक साथ रहना गवारा नहीं कर पाते। वजह कभी परिवार होता है तो कभी कुछ और। लेकिन आखिरकार दायरे छोटे होते जा रहे हैं। परिवार टूट रहे हैं, संबंधों में दरारें आ रही हैं।
वह भी क्या समय था जब भाई, मां-पिता प्राणों से भी प्रिय लगते थे और यह कल्पना करके कंपकंपी आ जाती थी कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब अलग होना पड़ेगा! एक दिन महज सपना देखा था कि पिताजी नहीं रहे! सुबह जागा तो देर तक आंखों में आंसू थे, मन को समझाया कि वह स्वप्न मात्र था। मगर वही सब, जो खून की डोर से बंधे हैं, जो अपने हैं, कैसे जीवन संग्राम में पराए हो गए हैं और हो जाते हैं, यह एक बड़ा विद्रूप सत्य है। इससे गाहे-बगाहे सभी का साबका पड़ता है। आसपास के मित्र हों या रिश्तेदार, सभी के यहां धीरे-धीरे यही तो रहा है। सिर्फ समय का अंतराल है। कहीं आज तो कहीं कल। मगर अभी जो एक हैं, कभी मिलते हैं, आगे अलग हो जाते हैं।
यह तमस मुझे पीड़ा पहुंचाता है। सोचता हूं, जैसा आत्मीय व्यवहार हमने बचपन में अपने बुजुर्गों में देखा, आज क्यों नहीं है। स्वार्थ, लोभ कैसे आज हमारे रिश्तों को नष्ट कर रहा है। मैं भी इससे अछूता नहीं हूं। दोष मुझमें भी है। मैं भी किसी का बड़ा हूं, किसी का बुजुर्ग! क्या मैंने अपने पास के छोटे बच्चों पर स्नेह बंधन युक्त हाथ रखा है?